11.1.09


ग़ज़ल
उनसे यूं ज़ुदा होकर फिर क़रीब आने में
देर लगती हैं आखिर फ़ासले मिटाने में


कितनी देर लगती है आसमां झुकाने में
लोग-बाग माहिर है उंगलियां उठाने में


किस तरह भला उसने ये जहां बना डाला
दम निकल गया मेरा अपना घर बनाने में


आजमाके तो देखूं एक बार उसको भी
जो य़कीन रखता हो सबको आजमाने में


तेरे सामने सारा रोम जल गया नीरो
तू लगा रहा केवल बांसुरी बजाने में


मुश्किलों से घबरा कर राह में न रुक जाना
ये तो काम आती हैं हौसला बढ़ाने में


दिन सुहाने बचपन के रुठ जायेंगे इक दिन
इल्म ये कहां था पुरु मुझको उस ज़माने में



5 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

हिन्दी ब्लॉग जगत में आपका हार्दिक स्वागत है, खूब लिखें, नियमित लिखें, शुभकामनायें… एक अर्ज है कि कृपया वर्ड वेरिफ़िकेशन हटा दें फ़िलहाल यह अनावश्यक है… धन्यवाद

Prakash Badal ने कहा…

स्वागत है

अजित गुप्ता का कोना ने कहा…

पुरु

तुम्‍हारा स्‍वागत है, ब्‍लाग जगत की इस बगिया में। ऐसे ही पुष्‍प खिलाते रहो, गुनगुनाते रहो।

अजित गुप्‍ता

अभिषेक मिश्र ने कहा…

दिन सुहाने बचपन के रुठ जायेंगे इक दिन
इल्‍म ये कहां था पुरु मुझको उस ज़माने में
अच्छा प्रयास. स्वागत ब्लॉग परिवार और मेरे ब्लॉग पर भी. (gandhivichar.blogspot.com)

Sanjeev Mishra ने कहा…

bahut hi sundar evam prashansniya.