आलेख



मायावती की मालाओं के बहाने.......


            मायावती की मालाओ के बारे में काफ़ी कुछ लिखा- कहा जा रहा हैं. राजस्थान पत्रिका के २९ मई के सम्पादकीय में लिखा गया है कि उनके पास न कोई फ़ेक्ट्री, न शेयर बाज़ार में निवेश और न ही खेती-बाडी है फ़िर भी ३ साल में ३६ करोंड की कमाई. राजनीति में आने से पहले एक सरकारी स्कूल में पढाने वाली मायावती इतनी धनवान कैसे बन गई. मायावती को करोडों रूपए की दौलत की जरूरत भी क्या है राजनीति में रहने वालों के लिए जनता का स्नेह और विश्वास ही सबसे बडी पूंजी होती है.
दर असल सवर्ण और पुरुष मानसिकता वाले लोगों के गले ये बात उतर नहीं पा रही है कैसे एक दलित और वो भी स्त्री भारत के सबसे ज्यादा जनसंख्या वाले राज्य की मुख्यमंत्री बन गई और वो भी मात्र ५४ साल की उम्र में चौथी बार ! और अब जब मायावती कहती है वो भारत की प्रधानमंत्री क्यूं नही बन सकती ? तो इसमें गलत भी क्या हैं? और खुदा न खास्ता वो दिन भी आ जाये तो इन सवर्ण मानसिकता वालो की हालत क्या होगी. इस बात का अंदाज़ा लगा लीजिए.ऊपर जो भी आरोप लगाए गये है.. वर्तमान राजनीति के असली चहरे के मद्देनज़र सच होने बाद भी बचकाने लगते है. आज कौन ऎसा नेता है जो इन आरोपों से अछूता है. मायावती की माया सिर्फ़ यही है कि वो जो भी करती है.. सही या गलत.. ताल ठोक कर .. सब के सामने करती है. आज जब शादी- ब्याह तक में दूल्हे को नोटो की माला पहनाई जाती है तो एक मुख्यमंत्री को पहनाये जाने पर इतनी हाय- तौबा क्यूं.आज जब सब नेता मीडिया पर छाये रहते हैं वही मयावती मीडिया से कोसो दूर रहती हैं. सब को सर- मैडम कहलाने में अपनी शान दिखाई देती है वहीं मायावती खुद को "बहन" कहलवाना पसंद करती है. मयावती कलेक्टर बनना चाहती थी, मगर काशीराम ये कह्कर उन्हे राजनीति में ले आये कि ऎसे १० कलेक्टर तुम्हारे सामने सर झुकाए खडे रहेंगे. आज उनके राजनीति मे रहने से दलित खुद को ताकत वर महसूस कर रहा है. उसमे विश्वास जगा है. और यही कारण है कि दलित उन्हे भगवान की तरह पूजता है
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साहिय अकादेमी अवार्ड- हरीश भादनी क्यूं नही ?

              
                         गत २३ दिसम्बर २००९ को २४ भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों को साहिय अकादेमी पुरस्कार प्रदान किए गए. इसमे आठ पुस्तकें कविता की, छः पुस्तकें लघुकथाओं की, चार उपन्यास, चार आलोचना, एक निब्न्ध और एक नाटक की पुस्तक हैं. राजस्थानी भाषा के लिए यह पुरस्कार मेजर रतन जान्गिड को उनकी लघु कथाओं की पुस्तक " माईं एडा पूत जण" के लिए प्रदान किय गया. राजस्थानी भाषा की ज्यूरी के मेम्बर थे प्रो.(डा.) क्रष्ण कुमार शर्मा, डा.कुन्दन माली और डा. शान्ती भारद्वाज "राकेश". इस पुरकार के लिए प्रख्यात जन कवि हरीश भदानी की पुस्तक "जिण हाथां आ रेत रचीजै" (कविताएं) भी नामान्कित थी. हरीश भादनी का गत २ अक्टूबर २००९ को निधन हो गया. लेकिन उनकी ये पुस्तक पहले ही से अवार्ड के लिए प्रेषित थी. ऎसे मे सवाल ये उठता है कि फ़िर क्यों नही उन्हे ये पुरस्कार दिया जाकर अन्य लेखक को दिया गया.क्या हरीश भादनी इस अवार्ड के लिए उपयुक्त व्यक्ति नही थे ? या उनका राजस्थानी साहित्य में मेजर जान्गिड से कम योगदान था ? क्या ज्यूरि के सद्स्यों को इस बात का विचार नही आया कि एक महान जन कवि को ये सम्मान प्रदान किया जना चाहिए. जिसकी पुस्तक भी इस पुरस्कार के लिए नामित है और जिस कवि का निधन भी अभी - अभी हुआ है ?

साहित्य अकादेमी पुरस्कारों मे कैसी बन्दर बांट चलती है ये भी अब किसी से छिपा नहीं है. उर्दु भाषा के लिए ये पुरस्कार अबुल कलाम कासमी को मिला है जो अलीगढ मुस्लिम युनिवर्सिटी के उर्दु विभाग के अध्यश है. और साहित्य अकादमी के पूर्व अध्यश प्रो. गोपीचंद नारन्ग को डाक्ट्रेट की मानद उपाधि भी इसी विश्व्विध्याल्य द्वारा प्रदान की गी थी. और इसमे उर्दु विभाग का हाथ होने से इन्कार नहीं किया जा सकता.और ये सब जानते हैं कि साहित्य अकादेमी में आज भी नारन्ग का कितना दखल है. वर्तमान अध्यश भी उनके हाथ की कठ्पुतली बने हुए हैं.और किस प्रकार उन्होने अपने कार्यकाल में इस पद का दुरुपयोग किया था ये भी सामने आ गया है. उनकी जिस पुस्तक को साहित्य अकादेमी अवार्ड प्राप्त हुआ है, उस पर भी चोरी का इल्ज़ाम है लगा हुआ हैं. पुरस्कार किसी व्यक्ति की प्रसिद्धि का मानक नहीं होता.जनकवि भादानी की कविताएं आज भी जन जन का कंठ्हार बनी हुई है.लेकिन जिस प्रकार की प्रव्रति साहित्य समाज में जन्म ले रही हैं,उसका परिणाम भी कम घातक नहीं होगा.


                       प्रेमचंद 
        पाखी के दिसम्बर 2008 अंक में श्री रत्नकुमार साम्भरिया का एक लेख पूस की रात और प्रेमचंद की अज्ञानता प्रकाशित हुआ है। उसी संदर्भ में मेरा ये आलेख है।
पूस की रात कहानी के माध्यम से रत्न कुमार सांभरिया द्वारा प्रेमचंद का बुद्वि-परीक्षण करना, निष्कर्ष स्वरुप उन्हें अज्ञान कथाकार घोषित करना तथा स्वयं की सर्वज्ञता प्रकट करना बहुत अच्छा लगा। जो लोग प्रेमचंद को महान कथाकार और उपन्यास सम्राट के नाम से जानते हैं इस लेख को पढ़कर उनकी आंखें जरुर खुल चुकी होगी कि प्रेमचंद इतने अज्ञान कथाकार थे जो ऋतुओं का चक्र भी नहीं जानते थे। लेकिन लगता है सम्पादक महोदय लेखक के विचारों से सहमत नहीं हैं। प्रकाशित लेख के पूर्व ही उन्होने अपना दृष्टिकोण स्पष्ट कर दिया है। प्रेमचंद को हिंदी साहित्य का महान लेखक ही नहीं माना बल्कि उन्हे विश्व के सर्वश्रेष्ठ रचनाकारों के समकक्ष खड़ा कर दिया है।
लेख के शीर्षक मा़त्र को पढ़कर कोई भी अनुमान लगा सकता है कि ये कितना विद्वेषतापूर्ण है। कहानी की कुछ तथ्यगत त्रुटियों को अज्ञानता कहना कहां की बुद्विमानी है। हंस के नियमित स्तंभ अक्षरशः में अभिनव ओझा विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित रचनाओं की त्रुटियों को व्यंग्यात्मक रुप से इंगित करते हैं तो क्या वे सभी रचनाकार अज्ञानी हैं। एक कहानी की आलोचना के माघ्यम से प्रेमचंद के सारे साहित्य को कठघरे में खड़ा कर दिया है। शीर्षक आधार पर ही लेख का विस्तार होता तो ज्यादा सार्थक होता। दो पन्नों के लेख में आपने प्रेमचंद का विशद विवेचन कर डाला।
लेखक का यह कहना कि कहानी में कर्तव्यच्युत का संदेश है ,ये संदेश सही मायने में नहीं गलत मायने में हैं। दिन रात मर खपकर काम करने के बाद जो कुछ प्राप्त हो उसे सेठ-साहूकार ले जायें और खुद भूखों मरते रहें, उस खेती को करने से आखिर लाभ ही क्या है। मरे हुए बच्चे को कब तक सीने से चिपकायें रखें। क्या किसान का कर्त्तव्य मात्र खेती करना ही है, व्यवसाय या रोजगार परिवर्तन का उसे अघिकार नहीं हैं। कहानीकार का तर्क ये है कि अनुत्पादक कृषि कार्य की अपेक्षा मजदूरी अधिक लाभप्रद है। क्या मजदूरी करना अकर्मण्यता है। जिन परिस्थितियों का कहानी में चित्रण हुआ है उनमें किसान के पास एकमात्र रास्ता बचता है - आत्महत्या का। लेकिन प्रेमचंद ने कहानी में इस विचार को कहीं भी स्थान नहीं दिया है। क्या आज कर्ज के बोझ के मारे सैकडों किसान आत्महत्या नहीं कर रहे हैं। क्या गांवो से ‘शहरों की ओर पलायन नहीं हो रहा हैं। आज भी वही परिस्थितियां हैं जो कहानी लेखन के समय थी। इसलिए कहानी ओर भी सार्थक हो जाती है।
लेखक का दूसरा आरोप कि प्रेमचंद ताजिंदगी वैचारिक अस्थिरता की धुरी पर घूमते रहे। रंगभूमि उपन्यास जो लेखक के अनुसार किसानों अकर्मण्यता की सीख देता है ,पूरी तरह गांधी को समर्पित है। क्या नायक अंधा सूरदास महात्मा गांधी का प्रतिनिधित्व नहीं करता । प्रेमचंद ने कितनी कहानियां देश प्रेम और देश भक्ति से ओत-प्रोत लिखी। प्रेमचंद ने कभी कृषि कार्य का बहिष्कार नहीं किया। अपितु उस समय के ग्रामीण अंचल की वास्तविकता को हमारे सामने रखा , जिससे हम जान पायें कि हमारे गांवों का सामाजिक ताना बाना कैसा था।
प्रेमचंद को मानसिक रुप से अंग्रेजों के पक्ष में खडा करना , एक साजिश के तहत उन्हे देशद्रोही साबित करना है। गांधी के साथी और अनुयायी होकर भी प्रेमचंद का जेल नहीं जाना , ये तर्क नहीं कुतर्क हैं। जेल कोई टकसाल नहीं जहां देशभक्त सिक्कों की तरह ढाले जाते हो। या वहां किसी के सिर पर मोहर लग कर नहीं आती कि इसे हमने देशभक्ति का सर्टिफिकेट दे दिया है। और जो उस दौरान जेल गये क्या सभी देशभक्त थे। और ये जरुरी नहीं कि एक साहित्यकार राजनैतिक व सामाजिक कार्यों में भी सक्रिय रहे। प्रेमचंद ही नहीं बहुत से साहित्कार जेल नहीं गये। इस आधार पर किसी का चरित्र- चित्रण करना कहां जक ठीक है।
प्रेमचंद के पास मेजेटिक भाषा और मुहावरेदार शैली थी , बिल्कुल सच है किंतु साथ ही सुगठित कथानक , सार्थक कथोपकथन और उचित देशकाल व वातावरण भी था। और अज्ञानता तो बिल्कुल ही नहीं थी। यदि कथ्य का अभाव होता तो गबन,गोदान, ‘शतरंत के खिलाडी आदि रचनाओं पर फिल्में नहीं बनतीं और न ही इतर भाषाओं में इनका अनुवाद होता।
नील गायें ईख की फसल को नष्ट भले ही न कर सके , मगर आग से नुकसान तो जरुर पहुंचता हैं। ये अनुभवजन्य सच है कि आग में जले गन्ने का रस किसी काम नहीं रह जाता। ग्वाला प्रेमचंद अपनी कलम रुपी लकड़ी की टो से साहित्य- मार्ग में पडे आप जैसे पत्थर-भाटों को ठेलता हुआ आगे बढ़ता हैं और बुलंदी तक पहुंचता है। शरद ऋतु के पश्चात् बसंत ऋतु का आगमन होता है , पतझड़ का नही ये बात सच है , मगर नीम अंधेरे में हाथ को हाथ दिखाई नहीं देता । क्या ये भी सच है । नीम का अर्थ क्या होता है । नीम का पेड़ या नीम हकीम का नीम यानी आधा हकीम , आधा अंधेरा। व्यक्ति अपरिचित राह में उजाले में भी नही चल सकता और परिचित मार्ग में गहन अंधकार में निर्विघ्न चल लेता है। जब गहन अंधेरे में खेत की रखवाली हो सकती है तो पत्तों का पहाड़ क्यूं नहीं बन सकता ।
कहानी में मात्र दो त्रुटियां ’लेखकीय चूक’ दृष्टिगोचर होती है । एक ईख की पकी फसल को नील गायें चौपट कर गई , दूसरी शीत ऋतु में पेडों से पत्ते गिर गये। मगर इन लेखकीय चूकों के उपरान्त भी कहानी की बोधगम्यता और नीहितार्थ में कोई अंतर नहीं पड़ता। कहानी प्रभावशली हैं और रहेगी।
प्रेमचंद कर कहानियों में सिर घुसा घुसा कर मीन- मेख निकालने वालों को अपनी कहानियों में गलतियां नजर नहीं आती। किसी व्यक्ति को अज्ञानता का तमगा पहनाने से पहले खुद के ज्ञान पर आश्वस्त हो जाना चाहिए।  जिन लेखकीय चूकों की ओर संकेत किया गया है वो वास्तव में इतनी प्रभावशाली गलतियां नहीं हैं जिनसे किसी लेखक के ज्ञान पर ही प्रश्न चिह्न लग जाएं। पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होकर यदि इस तरह से मीन- मेख निकाली जाएं तो दुनिया का कोई भी लेखक सुरक्षित नहीं है । बिपर सूदर एक कीनों ;‘शायद यहीं नाम था कहानी में जब आपने ब्राहमणों और चमारों को एक कर दिया जो कि भूत ,भविष्य और वर्तमान में नितान्त अकल्पनीय ,अविश्वसनीय और दुनिया का महानतम झूठ है तो किस मुंह से प्रेमचंद की कहानी कला पर सवालिया निशान लगाते है। प्रेमचंद ने तो अज्ञानता दर्शाई है , यह तो महामूर्खता है। और जिस पत्रिका में ये कहानी प्रकाशित हुई है , उसके संस्थापक भी प्रमचंद ही हैं ।
पूस की रात कहानी में नायक दलित है । इसलिए यह दलित खेमे चली जाती है और दलित साहित्यकार ये पचा नहीं पा रहा है कि किसी सवर्ण ने दलित कहानी क्यूं लिख दी। क्योंकि आज उन्हीं रचनाओं को दलित साहित्य माना जा रहा है जो दलित साहित्यकारों द्वारा लिखा जा रहा है।
आज प्रेमचंद की महानता उनकी रचनाओं के वैशिष्ट्य के कारण है बनिस्बत आलोचकों के रहमो-करम के। हिंदी में आज भी किसी व्यक्ति के साहित्य का प्रथम साक्षात्कार प्रेमचंद की रचनाओं के माध्यम से ही होता है । हिंदी कथा साहित्य में प्रेमचंद एक मील का पत्थर हैं।
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