
दोहें
दुःख अपना किस से कहें,सभी यहाँ मशगूल।
हमने भी रोते हुए, कर ली हँसी कबूल ।
कोलाहल में दिन गया, अवसादों में रैन ।
जीवन की घुड़ दोड़ में, मिला कही न चैन।
विलासिता के चीर से, सज- धज गया शरीर ।
तन के उजले हो गए,मन के रहे फकीर ।
कलयुग के इस दौर की, क्या कीजे अब बात ।
हंसो को दाने नही, कोव्वे खाए भात ।
रिश्तो के इस दौर में, हम कितने मजबूर ।
रहते एक छत के तले ,लेकिन कोसों दूर ।
मछलियाँ गयी दूर जब, हुई न भूख तमाम ।
बगुले जी रटने लगे , तभी राम का नाम ।
दुःख अपना किस से कहें,सभी यहाँ मशगूल।
हमने भी रोते हुए, कर ली हँसी कबूल ।
कोलाहल में दिन गया, अवसादों में रैन ।
जीवन की घुड़ दोड़ में, मिला कही न चैन।
विलासिता के चीर से, सज- धज गया शरीर ।
तन के उजले हो गए,मन के रहे फकीर ।
कलयुग के इस दौर की, क्या कीजे अब बात ।
हंसो को दाने नही, कोव्वे खाए भात ।
रिश्तो के इस दौर में, हम कितने मजबूर ।
रहते एक छत के तले ,लेकिन कोसों दूर ।
मछलियाँ गयी दूर जब, हुई न भूख तमाम ।
बगुले जी रटने लगे , तभी राम का नाम ।