दोहें




दोहें

दुःख अपना किस से कहें,सभी यहाँ मशगूल। 
हमने भी रोते हुए, कर ली हँसी कबूल । 
कोलाहल में दिन गया, अवसादों में रैन । 
जीवन की घुड़ दोड़ में, मिला कही न चैन। 
विलासिता के चीर से, सज- धज गया शरीर ।
तन के उजले हो गए,मन के रहे फकीर । 

कलयुग के इस दौर की, क्या कीजे अब बात । 
हंसो को दाने नही, कोव्वे खाए भात । 
रिश्तो के इस दौर में, हम कितने मजबूर । 
रहते एक छत के तले ,लेकिन कोसों दूर । 

मछलियाँ गयी दूर जब, हुई न भूख तमाम । 
बगुले जी रटने लगे , तभी राम का नाम ।