गज़लें







ग़ज़ल
मुश्किलें आती रही, हादिसे बढ़ते गये ।
मंज़ि़लों की राह में, क़ाफ़िले बढ़ते गये ।

दरमियाँ थी दूरियाँ, दिल मगर नज़दीक़ थे
पास ज्यूँ-ज्यूँ आये हम, फ़ासले बढ़ते गये ।

राहरवों का होंसला, टूटता देखा नहीं
ग़रचे दौराने-सफ़र, हादिसे बढ़ते गये ।

साथ रह कर भी बहम हो न पाई ग़ुफ़्तग़ू
ख़ामशी के दम ब दम, सिलसिले बढ़ते गये ।

हम थे मंज़िल के क़रीब, और सफ़र आसान था
यक-ब-यक तूफ़ां उठा, वस्वसे बढ़ते गये ।

किस्सा-ए-ग़म से मेरे कुछ न आँच आई कभी
मेरे दुख और उनके 'पुरु' क़हक़हे बढ़ते गये ।


ग़ज़ल
उनसे यूं ज़ुदा होकर फिर क़रीब आने में
देर लगती हैं आखिर फ़ासले मिटाने में

कितनी देर लगती है आसमां झुकाने में
लोग-बाग माहिर है उंगलियां उठाने में

किस तरह भला उसने ये जहां बना डाला
दम निकल गया मेरा अपना घर बनाने में

आजमाके तो देखूं एक बार उसको भी
जो य़कीन रखता हो सबको आजमाने में

तेरे सामने सारा रोम जल गया नीरो
तू लगा रहा केवल बांसुरी बजाने में

मुश्किलों से घबरा कर राह में न रुक जाना
ये तो काम आती हैं हौसला बढ़ाने में

दिन सुहाने बचपन के रुठ जायेंगे इक दिन
इल्म ये कहां था पुरु मुझको उस ज़माने में





ग़ज़ल


ग़म अगर दिल को मिला होता नहीं
ज़िंदगी में कुछ मज़ा होता नहीं


ज़ीस्त की रह में है दिल तनहा तो क्या
हर सफ़र में काफ़िला होता नहीं

हम सदा हालात को क्यों दोष दें
क्या कभी इंसा बुरा होता नहीं

मैं हमेशा साथ रहता हूँ तेरे
तू कभी मुझसे जुदा होता नहीं

एक इक पल बोझ-सा लगता है जब
जेब में पैसा-टका होता नहीं

सबकी आँखें पुरु कहाँ होती हैं नम
हर किसी दिल में ख़ुदा होता नही


गज़ल



अगर किसी ने यहाँ दिल से दोस्ती कर ली
यूँ जानिये कि जहां भर से दुश्मनी कर ली

फ़रेब उसने किया जिसपे था यक़ीन मुझे
कि रहनुमा था सरे-राह रहजनी कर ली

अजब है बात मगर बर्क़ ने उड़ाई है
कि उसने ख़िरमने-हस्ती से दोस्ती कर ली

वो सारे शहर की ज़ुल्मत मिटाने निकला था
और उसने क़ैद हवेली में रोशनी कर ली

तू मेरे साथ होता तो और अच्छा था
तेरे बग़ैर बसर यूँ तो ज़िंदगी कर ली

मिला है पुरु को यक़ीन आप ऐसा रहनुमा
ग़ज़ल की राह खुली यूँ कि शाइरी कर ली